मजदूरो का हाल बेहाल : छत्तीसगढ़िया मजदुर मजबूर क्यों

छत्तीसगढ़िया मजदुर मजबूर क्यों

छत्तीसगढ़िया मजदुर मजबूर क्यों

गजेन्द्र वर्मा/वर्तमान मंथन : किसी भी प्रदेश में वहां का रहवासी अगर नौकरी, रोजगार, मजदूरी को लेकर मजबूर है तो फिर वहां की सरकार किस काम की, सरकारों का पहला काम ही यही है कि वह अपने प्रदेशवासियों के रोजगार की व्यवस्था करे, प्रदेश में खुलने वाले उद्योगों में प्रादेशिक मजदूरों, कामगारों को प्राथमिकता दे।बीते 20 वर्षों से छत्तीसगढ़ पलायन के ग्राफ में शीर्ष पर क्यों है?

क्या हमारी सरकारों ने अपने लोगों के लिए रोजगार मूलक योजनाओं की व्यवस्था नही की? हां किया गया है पर उन योजनाओं में रोजगार और जीवनयापन की कितनी मानकता है, राष्ट्रीय रोजगार गारंटी में पहले 50 दिन और अब 100 दिन की रोजगार सरकारें दे रही है l  365 दिन में गांव का मजदूर किसान लगभग 100 दिन कृषि और कृषि मजदूरी में काम चला लेता है, फसल कटाई हुई, खेती का काम समाप्त हुआ फिर अब किसान मजदूर करें तो क्या करें? 100 रोजगार गारंटी की व्यवस्था की सच्चाई आप किसी भी ग्राम पंचायत के मस्टररोल में झांक कर जान सकते हैं, फिर चलो मान लेते हैं 100 दिन किसानी, 100 दिन रोजगार गारंटी तो अब बंचे 165 दिन किसान मजदूर क्या करें?

इसका जवाब सरकार दें तो ठीक !! आपको जानकर जरा भी अचरज न होगा, देश और विदेशों में जाने वाला लोहा और उच्च क्वालिटी का सीमेंट छत्तीसगढ़ से निर्यात होता है, यानि यहां बहुतों उद्योग स्थापित है फिर भी यहां का मजदूर पलायन करता है क्यों? उद्योगों का सीधा सा गणित है, स्थानीय मजदूरों को कम से कम रखना, बाहर प्रदेशों से आए लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार देना, इसका फायदा है, बाहर से आए मजदूर के लिए कंपनी माई-बाप और स्थानीय लोगों के पास कई ऑप्सन्स।ज़ाहिर बात है कोई भी उद्योग अपनी उद्पादन क्षमता पर जोर देगा, लेकिन प्रदेशों के पास श्रम कानून के नियम भी तो हैं जो कहते हैं स्थानीय मजदूर 70% और अन्य 30% पर ये आंकड़ा हमारे छत्तीसगढ़ में उलट बैठता है।रायपुर जिला के अभनपुर स्थित कोलर गांव में स्थापित पारले-जी कंपनी की बात करें या प्रदेश के किसी भी औद्योगिक घराने की, स्थिति सभी जगह एक से हैं।

आज सबसे दयनीय स्थिति छत्तीसगढ़ के मजदूरों की है यहां के रोजगारों पर बाहरी लोगों ने कब्जा कर रखा है और इस माटी का कमइया बेटा देश के बाहर ईंट भट्टों में अपनी जिंदगी जला रहा है, इतना ही नही बाहर हमारी महतारी-बहनों के अस्मिता के साथ नंगानाच भी जारी है। यहां पढ़े लिखे नौजवानों के लिए अवसर की कमी है? उच्च शिक्षित होकर भी मजबूरी में यहां का युवा 10-15 हजार रुपय की नौकरी बड़े संस्थानों में कर रहा है क्यों की वह अपनी माटी छोड़ कर जाना नही चाहता और उसी के बराबर काम करने वाला बाहर से आया बाबू 50-55 हजार रुपए की सैलिरी उठा रहा है।असमानता हर जगह है और वक़्त कम है, इन परिस्थियों से कैसे निपटना है? हमारे प्रदेश के युवा पीढ़ी को तय करना है