जमीन के खेल में कानून ताक पर : राजस्व अधिकारियों व दलालों की मिलीभगत से बार-बार बिक रही बड़े झाड़ जंगल की भूमि

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  • जो राष्ट्रपति के अलावा कोई नहीं कर सकता वो महासमुंद के राजस्व अधिकारियों ने कर दिया
    बड़े झाड़ के जंगल भूमि को पहले कृषि भूमि बताया अब मुर्गियों की खेती

महासमुंद। महासमुंद के राजस्व अधिकारियों ने वो काम भी कर दिया है जो देश के राष्ट्रपति के अलावा और कोई नहीं कर सकता। यह हम नहीं राजस्व रिकॉर्ड कह रहे हैं। राजस्व अधिकारियों और जमीन दलालों की जुगलबंदी ने नामुमकिन को भी मुमकिन कर दिखाया है। एक कारनामा ग्राम पंचायत उमरदा में सामने आया है। जहां कोटवार को जीविकोपार्जन के लिए दी गई पटवारी हल्का 44, खसरा नंबर 114, रकबा 0.43 हेक्टेयर सेवा भूमि जो राजस्व रिकॉर्ड में आज भी बड़े झाड़ का जंगल दर्ज है, इसके फर्जी दस्तावेज तैयार कर, उसमें भूमि स्वामी व कृषिभूमि दर्ज कर एक नहीं दो दफा बेचा जा चुका है। यही नहीं राजस्व विभाग ने इतनी तत्परता दिखाई कि, उस भूमि का प्रमाणीकरण, नामांतरण के अलावा ऋण पुस्तिका तक बनाकर दे डाला। अब उस बड़े झाड़ जंगल की जमीन पर पोल्ट्री फॉर्म तैयार हो रहा है।

प्रमाणित दस्तावेजों के अनुसार उमरदा पंचायत के तत्कालीन कोटवार खुबिराम मरकाम को जीविकोपार्जन के लिए 35-40 साल पहले शासन द्वारा वन भूमि (बड़े झाड का जंगल) दी गई थी। जिसका वर्तमान खसरा नंबर 114, रकबा 0.43 हेक्टेयर है। वर्ष 1992-93 में हुई रि-नंबरिंग में सबिक नंबर (पुराना खसरा) 14/20 है और हाल नंबर खसरा 114, रकबा 0.43 हेक्टेयर है, जो राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार वन भूमि (बड़े झाड़ का जंगल) में दर्ज है। जबकि, बड़े झाड जंगल को आबंटन करने की शक्ति सिर्फ और सिर्फ देश के राष्ट्रपति को है। लेकिन यहां जमीन दलाल, पटवारी सहित राजस्व विभाग के अफसरों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा कर बड़े झाड जंगल (वन भूमि) का पूरा दस्तावेज बनाकर दे डाला।
दस्तावेज बताते हैं कि नीरा बाई पिता खुबिराम मरकाम ने उस वन भूमि को कॉलेज रोड निवासी देवराज लूनिया पिता तेजमल लूनिया को बेचा था। इस वन भूमि की खरीदी बिक्री में जमीन दलाल, पटवारी सहित राजस्व विभाग के अफसरों ने अहम भूमिका निभाई थी। क्योंकि, खसरा नंबर 114 बड़े झाड का जंगल (वन भूमि) का सारा दस्तावेज राजस्व विभाग के अफसरों के टेबल से होकर गुजरे थे। इन राजस्व अधिकारियों ने वन भूमि (बड़े झाड जंगल) को अपने राजस्व रिकार्ड में भूमिस्वामी, कृषि भूमि दर्ज कर दस्तावेज तैयार किए थे। इसके बाद पटवारी ने देवराज लूनिया को इसी वन भूमि (बड़े झाड जंगल) का ऋण पुस्तिका क्रमांक 714979 बनाकर दिया था। फिर देवराज लूनिया ने इसी ऋण पुस्तिका के बल पर यूको बैंक से 22 जून 2015 में ऋण (लोन) लिया था। वर्ष 2017-18 में यूको बैंक का ऋण मुक्त होने के बाद उस जमीन को बेचने तत्कालीन पटवारी और तहसीलदार ने अपने हस्ताक्षर से 08 दिसंबर 2018 को बिक्री नकल सहित बी-वन और खसरा जारी किया था। फिर देवराज लूनिया पिता तेजमल लूनिया ने इस भूमि को 09 जनवरी 2019 को नयापारा वार्ड क्रमांक 11, निवासी मनीष कुमार साहू, सतीश कुमार साहू पिता रामशंकर साहू को 6 लाख रुपये में बेचा दिया। अब इस बड़े झाड़ जंगल की भूमि पर पोल्ट्री फॉर्म बनाया जा रहा है। जबकि बड़े झाड़ जंगल की भूमि न ही बेची जा सकती है और न ही खरीदी जा सकती है। लेकिन यहां तो रजिस्ट्री से लेकर प्रमाणीकरण, नामांतरण तक हो चुका है। यही नहीं हल्का पटवारी ने ऋण पुस्तिका तक बना कर दे डाला है। जबकि आम धारणा है कि पटवारी से लेकर राजस्व विभाग के अफसर बिना भेंट चढ़ाए कोई भी काम नहीं करते और अक्सर आम लोगों को नियम कायदे का पाठ पढ़ाते हैं।
कोटवारों को जीवकोपार्जन के लिए आबंटित भूमि को लेकर उच्च न्यायालय और आपदा एवं प्रबंधन विभाग द्वारा दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं, लेकिन इन दिशा-निर्देशों के अनुसार 2014 से लेकर अब तक जिले में एक भी ऐसी कार्रवाई देखी न सुनी गई है।
आप भी जानिए, आपदा एवं प्रबंधन विभाग का क्या था आदेश
माननीय उच्च न्यायालय बिलासपुर में वर्ष 2000 में कोटवारों द्वारा एक रिट याचिका दायर की गई थी। उस आदेश का हवाला देते हुए छत्तीसगढ़ शासन के आपदा एवं प्रबंधन विभाग के तत्कालीन संयुक्त सचिव पी. निहालानी ने 10 मार्च 2014 को समस्त संभागायुक्त एवं कलेक्टर्स को 12 बिंदुओं का एक पत्र जारी किया था। जिसमें याचिकाकर्ताओं का उल्लेख करते हुए कहा था कि,
“कोटवारों को मालगुजारी के लिए 1950 के पूर्व की दी गई भूमि हेतु भू स्वामी अधिकार दिया जाये। विभाग पत्र क्रमांक एफ 10/11/2000/सात में निर्देशित किया गया है कि, ऐसे कोटवार जिन्होंने न्यायालय में याचिका दायर नहीं की है तथा जिन्हें मालगुजारों द्वारा कोटवारी के एवज में भूमि प्रदान की गई थी, तथा जो पीढ़ी दर पीढ़ी कोटवार का कार्य करते आ रहे हैं, उन्हें भी भूमि स्वामी अधिकार प्रदान किये जाएं।
इसके बाद आपदा एवं प्रबंधन विभाग ने उस आदेश को निरस्त कर दिया। दूसरा पत्र पार्ट-2 में दिनांक 21/04/2003 को जारी पत्र में कहा कि, शासन के ध्यान में यह बात लायी गई है कि, भूमि स्वामी अधिकार प्राप्त होने के बाद कतिपय कोटवारों द्वारा कोटवारी भूमि का विक्रय बिना कलेक्टर की अनुमति के कर दिया गया है। कोटवारी भूमि का भूमि स्वामी हक शासन द्वारा दिया गया है। संहिता की धारा 158 के प्रावधानों के अनुसार ऐसी भूमि जिसका भू-स्वामी हक शासन द्वारा दिया गया है, का हस्तांतरण 10 वर्ष की अवधि तक नहीं किया जा सकता। धारा 165 (7-ख) के प्रावधानों के अनुसार शासन द्वारा भूमि स्वामी हक पर प्रदत्त भूमि का विक्रय बिना कलेक्टर अनुमति के नहीं किया जा सकता। धारा 109 के प्रावधानों के अनुसार स्वत्व के विधि पूर्वक हस्तांतरण होने पर ही नामांतरण किया जा सकता है। उपरोक्त प्रावधानों के परिपेक्ष्य में कोटवारों द्वारा विक्रय की गई भूमि संबंधी प्रकरणों का परीक्षण किया जाकर आवश्यक कार्यवाही की जाए तथा कोटवारों को प्रदाय की गई भूमि के अभिलेखों में अहस्तांतरणीय शब्द लिखा जाना सुनिश्चित किया जाए। कोटवारों द्वारा अवैधानिक रूप से विक्रय की गई भूमि के विक्रय विलेख को भी व्यवहार न्यायालय में वाद दायर कर निरस्त कराया जाना होगा। इसके लिए विक्रय विलेख की छायाप्रति भी संबंधित उप पंजीयकों से प्राप्त की जाए। समस्त कार्यवाही को एक समय सीमा में पूर्ण की जाए। विक्रय की गई भूमि के संबंध में महाधिवक्ता छत्तीसगढ़ बिलासपुर के पत्र दिनांक 30/04/2012 के मार्गदर्शन अनुसार निम्नानुसार कार्यवाही 6 माह के भीतर किया जाना सुनिश्चित करें। विभागीय पत्र दिनांक 21/04/2003 के परिपेक्ष्य में कितने कोटवारों को कितनी जमीन भूमि स्वामी हक दिया गया है, की जानकारी एकत्रित की जाए। कंडिका (1) वर्णित कितने कोटवारों द्वारा कितनी भूमि का विक्रय कर दिया है, की जानकारी एकत्रित की जाए। बेची गई जमीन के दस्तावेज संबंधित उप पंजीयक से प्राप्त किया जाए। विभागीय पत्र दिनांक 21/04/2003 के परिपेक्ष्य में जिन कोटवारों को भूमि स्वामी दर्ज किया गया है, उन्हें पुन: सेवा भूमि के रूप में दर्ज किया जाए। क्रेताओं को अवैध अंतरण तथा नामांतरण के विरुद्ध नोटिस जारी कर कब्जा प्राप्त करने की कार्यवाही की जाए। यदि क्रेता उपरोक्त नोटिस का पालन नहीं करते हैं तो राज्य शासन सिविल वाद दायर करें।” स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं, लेकिन ऐसे एक भी मामले में जिला प्रशासन द्वारा कार्यवाही करना तो दूर जिले में कोटवारों को दी गई भूमि की जानकारी तक उपलब्ध नहीं है। ऐसे में जिला प्रशासन से कार्यवाही की उम्मीद कैसे की जाय?
कानून में सजा के साथ जुर्माने का प्रावधान…
कानून के जानकार बताते हैं कि, वन भूमि (बड़े झाड जंगल) का मूल स्वरूप को कभी बदला नहीं जा सकता। इसका अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है। शासन चाहे उक्त भूमि को अन्य प्रायोजन में ला सकता है। लेकिन उक्त भूमि की मूल पहचान वन भूमि के रूप में होगी। अगर किसी भी व्यक्ति द्वारा शासकीय दस्तावेज में कूटरचना व छेड़छाड़ कर वन भूमि का स्वरूप बदलकर कृषि भूमि बताया जाता है या फिर बेचा जाता है तो ऐसा कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है, जिसके लिए कानून में सजा के साथ जुर्माना का प्रावधान है।

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